उत्तराखंड की बारानाजा (बारह अनाज) फसल पद्धति में सारे पोषक तत्व मिलते हैं, जिसकी आज जरूरत है। इस पद्धति से फसल की पैदावार कम होती है, लेकिन यह पद्धति पौष्टिकता से भरी हुई है।

बदलते समय में जमीन जहरीली हो रही है जिसके कारण फसल भी जहरीली होती जा रही है। रासायनिक उर्वरकों के ज्यादा उपयोग से खेती की जो दशा हुई है, उसे हम सभी जानते हैं। हालांकि, जो पैदावार हो रही है, वह समान्य फसल से अधिक जरूर है, मगर उसकी गुणवत्ता कम हो गई है। ऐसा अन्न खाने से हमारी सेहत पर बुरा असर तो पड़ेगा ही। यही सबसे बड़ी चिंता का कारण भी है। सेहत को देखते हुए फसल में बदलाव लाना बहुत जरूरी है। इस हिसाब से देखें तो उत्तराखंड की ‘बारानाजा’ फसलें इसी बदलाव का प्रतिबिंब हैं, उत्तराखंड की फसलों में पौष्टिकता के साथ औषधीय गुण भी भरे हुए हैं।कृषि पैदावार बढ़ाने के लिए जिस तरह रासायनिक उर्वरकों का उपयोग हो रहा है, इसका परिणाम हमारे सामने रोगों के तौर पर आ रहा है। ऐसे में पौष्टिक और औषधीय गुणों से भरपूर अन्न मिल जाए तो कहने ही क्या।

यह है बारानाजा पद्धति

उत्तराखंड की जलवायु और भौगोलिक स्थितियों के अनुसार पहाड़ी क्षेत्र के लोगों ने सदियों पहले गेहूं एवं धान की मुख्य फसल के साथ ही बारानाजा पद्धति को महत्व दिया। मंडुवा व झंगोरा बारानाजा परिवार के मुख्य सदस्य माने गए हैं। इसके अलावा ज्वार, चौलाई, भट्ट, उड़़द, गहथ, नौरंगी, कुट्टू, लोबिया,तिल, राजमा, तोर आदि इसकी सहयोगी फसलें हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो बारानाजा मिश्रित खेती सर्वश्रेष्ठ मानी गई है और यह फसलें पूरी तरह से जैविक भी हैं। उत्तराखंड की भूमि में बारह फसलें उगाकर पौष्टिक भोजन की जरूरत पूरी करने के साथ ही भूमि की उपज शक्ति बनाए रखने की क्षमता भी है।

बारानाजा पद्धति को आगे बढ़ाने के लिए ‘नव धान्यसंस्था ने बारानाजा उगाओ-जीवन बचाओ’ अभियान शुरू किया है। संस्था का मानना है कि बारानाजा सदियों से किसानों द्वारा उगाया जाता है।और यह गरीब के घर में संतुलित आहार का आधार भी है। कम जगह में ज्यादा और अलग अलग पैदावार लेने में यह पद्धति सक्षम है। बारानाजा की फसलों में सूखा और कीटों से लडऩे की भी जबर्दस्त क्षमता है, जो आज कल के मौसम चक्र को देखते हुए एक अच्छा विकल्प पेश करती है। यही कारण है कि जब भी अकाल जैसी परिस्थिति आई बारानाजा बचा रहा। इसलिए हमें इस पद्धति को ज्यादा से ज्यादा बढ़ावा देना चाहिए।