कहा जाता है कुछ लोग महान पैदा होते हैं, कुछ लोग महानता अर्जित करते हैं और कुछ पर महानता थोप दी जाती है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ऐसे महापुरुष हैं जिन्होंने महानता अर्जित की थी। एकात्म मानववाद और अंत्योदय के जिस रास्ते पर चलकर आज केंद्र सरकार देश के हर वर्ग के सपने को साकार कर आत्मनिर्भर भारत की ओर कदम बढ़ा रही है, उसके प्रणेता पं. दीनदयाल उपाध्याय ही हैं। एक ऐसे युगदृष्टा जिनके बोए गए विचारों और सिद्धांतों के बीज ने राष्ट्र पुनर्निर्माण के लिए जन-जन को आलोकित किया।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितंबर, 1916 को उनके नाना चुन्नीलाल शुक्ल के घर में हुआ था। भारतीय सामाजिक परंपरा के मुताबिक पहला प्रसव महिला के मायके में होता है। इसलिए दीनदयाल जी का जन्म उनके नाना के घर राजस्थान के धनकिया गांव में हुआ। लेकिन उनका पैतृक गांव उत्तर प्रदेश में मथुरा जिले का नांगला चंद्रभान है। पंडित जी के पिता भगवती प्रसाद उपाध्याय ब्रज मथुरा में जलेसर रेलवे मार्ग पर एक स्टेशन पर स्टेशन मास्टर थे। पं. दीनदयाल उपाध्याय का बचपन असहनीय परेशानियों के बीच बीता। दीनदयाल जी जब तीन साल के थे, तभी उनके सिर से पिता का साया उठ गया सात वर्ष की छोटी सी आयु में मां रामप्यारी का भी निधन हो गया। जिन्दगी की जिस अवस्था में मां-पिता के प्रेम की बहुत जरूरत होती है, उसी अवस्था में पंडितजी पिता के आश्रय और मां की ममता से वंचित हो गए थे।

पंडितजी होनहार थे। बुद्धि से तेज थे। उन्होंने कल्याण हाई स्कूल सीकर से मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की। उन्हें अजमेर बोर्ड और स्कूल दोनों की तरफ से एक-एक स्वर्ण पदक प्रदान किया गया। दो वर्ष बाद बिड़ला कॉलेज पिलानी से हायर सेकंड्री परीक्षा में वे प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुए। इस बार भी उन्हें दो स्वर्ण पदक मिले। 1939 में उन्होंने सनातन धर्म कॉलेज, कानपुर से गणित विषय से बीए की परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की यहीं उनकी भेंट राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकताओं से हुई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं के तपस्वी जीवन से प्रभावित होकर उनके मन में भी देश सेवा करने का विचार आया। पंडितजी ने आगरा के सेंट जॉन्स कॉलेज में एमए के लिए दाखिला लिया लेकिन किन्हीं कारणों से उन्हें बीच में ही पढ़ाई छोड़नी पड़ी। इस दौरान उन्होंने तय कर लिया था कि वे नौकरी नहीं करेंगे। उन्होंने राष्ट्रीय जाग्रति एवं राष्ट्रीय एकता के लिए कटिबद्ध राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्य के लिए अपना जीवन अर्पित कर दिया।

1951 तक वे संघ में विभिन्न पदों पर रहकर समाज चेतना का कार्य करते रहे। 1951 में जब जनसंघ की स्थापना हुई, तब से उन्होंने अपनी सेवाएं जनसंघ को अर्पित कर दी। डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी उनकी संगठन क्षमता से इतने अधिक प्रभावित हुए कि कानपुर अधिवेशन के बाद उनके मुंह से यही उद्गार निकले कि यदि मेरे पास और दो दीनदयाल होते तो मैं भारत का राजनीतिक रूप बदल देता। दुर्भाग्य से 1953 में डॉक्टर मुखर्जी की मृत्यु हो गई। डॉ. मुखर्जी की मौत के बाद भारत का राजनीतिक स्वरूप बदलने की जिम्मेदारी पॉडत दीनदयाल के कंधों पर आ गई। उन्होंने इस कार्य को इतने चुपचाप और विशेष ढंग से पूरा किया कि जब 1967 के आम चुनाव के परिणाम सामने आने लगे तब देश आश्चर्यचकित रह गया। वोट प्रतिशत के लिहाज से जनसंघ राजनीतिक दलों में दूसरे क्रमांक पर पहुंच गया। यद्यपि दीनदयालजी महान नेता बन गए थे परन्तु वे अति साधारण ढंग से ही रहते थे। वे अपने कपड़े स्वयं ही साफ करते थे। वे स्वदेशी के बारे में शोर नहीं मचाते थे परन्तु वे कभी भी विदेशी वस्तु नहीं खरीदते थे।

स्वाधीनता आंदोलन के दौरान अनेक नेताओं ने पत्रकारिता का उपयोग राष्ट्रभक्ति की अलख जगाने के लिए किया ऐसे नेताओं हुई हत्या को कई लोगों की कतार में पंडित दीनदयाल उपाध्याय का नाम भी शामिल है। पं. पंडित दीनदयाल जी क दीनदयाल राजनीति में सक्रिय होने के साथ साहित्य से भी जुड़े थे उनके हिंदी और अंग्रेजी के लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते थे। उनके बौद्धिक सामर्थ्य को समझने के लिए एक उदाहरण की काफी है। उन्होंने एक ही बैठक में (लगातार 16 घंटे बैठ कर) लघु उपन्यास ‘चंद्रगुप्त मौर्य’ लिख डाला था। दीनदयालजी ने लखनऊ में राष्ट्रधर्म प्रकाशन की स्थापना की और राष्ट्रवादी विचारों को प्रसारित करने के लिए मासिक पत्रिका राष्ट्रधर्म शुरू की। बाद में उन्होंने ‘पांचजन्य’ (साप्ताहिक) और ‘स्वदेश’ (दैनिक) की शुरुआत भी की। वे एक उच्च कोटि के पत्रकार थे।

स्वाधीनता आंदोलन के दौरान अनेक नेताओं ने पत्रकारिता का उपयोग राष्ट्रभक्ति की अलख जगाने के लिए किया ऐसे नेताओं की कतार में पंडित दीनदयाल उपाध्याय का नाम भी शामिल है। पं. पंडित दीनदयाल राजनीति में सक्रिय होने के साथ साहित्य से भी जुड़े थे उनके हिंदी और अंग्रेजी के लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते थे। उनके बौद्धिक सामर्थ्य को समझने के लिए एक उदाहरण ही काफी है। उन्होंने एक ही बैठक में (लगातार 16 घंटे बैठ कर) लघु उपन्यास ‘चंद्रगुप्त मौर्य’ लिख डाला था। दीनदयालजी ने लखनऊ में राष्ट्रधर्म प्रकाशन की स्थापना की और राष्ट्रवादी विचारों को प्रसारित करने के लिए मासिक पत्रिका राष्ट्रधर्म शुरू की। बाद में उन्होंने ‘पांचजन्य’ (साप्ताहिक) और ‘स्वदेश’ (दैनिक) की शुरुआत भी की। वे एक उच्च कोटि के पत्रकार थे।

11 फरवरी 1968 को मुगलसराय रेलवे यार्ड में उनका शव मिलने से सारे देश में शोक की लहर दौड़ गई थी। उनकी इस तरह हुई हत्या को कई लोगों ने भारत के सबसे बुरे कांडों में से एक माना। पंडित दीनदयाल जी की रहस्यमयी स्थिति में हुई हत्या की गुत्थी आज तक नहीं सुलझ सकी है।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय भारत में लोकतंत्र के उन पुरोधाओं में से एक हैं, जिन्होंने इसके उदार और भारतीय स्वरूप को गढ़ा है। उन्होंने राजनीति में सत्ता प्राप्ति के उद्देश्य को लेकर प्रवेश नहीं किया था। सादगी से जीवन जीने वाले इस महापुरुष में राजनीतिज्ञ, संगठन शिल्पी, कुशल वक्ता, समाज चिंतक, अर्थचिंतक, शिक्षाविद्, लेखक द और पत्रकार सहित कई प्रतिभाएं समाहित थीं। ऐसी प्रतिभाएं कम ही लोगों में होती हैं। पं. दीनदयाल उपाध्याय के राजनीतिक व्यक्तित्व को सब भली प्रकार जानते हैं। उन्होंने जनसंघ का कुशल नेतृत्व किया, उसके लिए सिद्धांत गढ़े और राजनीति में शुचिता की नई लकीर खींची।

प्रधानमंत्री मोदी ने आज पंडित दीनदयाल उपाध्याय को याद करते हुए ट्वीट किया;