व्यक्तित्व: शिक्षक दिवस पर विशेष डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन
एक आदर्श राजनेता, दूरदृष्टा राजनयिक, दर्शनशास्त्री, मानवतावादी कई रूपों में इस देश के मान और सम्मान की पताका विदेशी धरती आलोकित करने वाले डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन लेकिन इन सबसे बढ़कर देश ने उन्हें एक शिक्षक के रूप माना। दरअसल, हमारे शास्त्रों में ही कहा गया है- आचार्य देवो भवः। यानी शिक्षक ईश्वर के समान है। इसीलिए एक शिक्षक से बड़ा सम्मान कुछ और हो भी नहीं सकता और डॉ. राधाकृष्णन को यही सम्मान हासिल है। इसीलिए उनके जन्मदिन 5 सितंबर पर भारत शिक्षक दिवस मनाकर उन्हें नमन करता है….
डॉ. राधाकृष्णन कहते थे-“ शिक्षक वह नहीं जो छात्र के दिमाग में तथ्यों को जबरन ठूंसे, बल्कि वास्तविक • शिक्षक तो वह है जो उसे आने वाले कल की चुनौतियों के लिए तैयार करे।” वो जीवनभर इसी सिद्धांत पर चले आज जब भारत 34 साल बाद मिली नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के साथ भविष्य के साथ कदमताल के लिए तैयार है, तो डॉ. राधाकृष्णन की यह बातें और भी प्रासंगिक हो जाती हैं। वर्ष 1962 की बात है, कुछ मित्रों ने डॉ. राधाकृष्णन से उनका जन्मदिन मनाने की अनुमति मांगी। डॉ. राधाकृष्णन ने अपने मित्रों से कहा कि उन्हें प्रसन्नता होगी अगर उनके जन्मदिन को शिक्षकों को याद करते हुए मनाया जाए। इसके बाद 1962 से हर साल पांच सितंबर को शिक्षक दिवस मनाया जाता है।
तमिलनाडु के तिरुतिनी गांव में 5 सितंबर 1888 को एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे राधाकृष्णन की स्कूली शिक्षा क्रिश्चियन मिशनरी स्कूल में हुई मद्रास कॉलेज में अपने पांच साल के अध्ययन में राधाकृष्णन भरतीय दर्शन के साथ-साथ पश्चिमी दर्शन भी पढ़ते रहे। 1909 में 20 साल की उम्र में उनको मद्रास यूनिवर्सिटी के फिलॉसफी विभाग में नौकरी मिल गई। 1929 में वो ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के हैरिस मेनचेस्टर कॉलेज में बतौर प्रिंसिपल चले गए। 1931 में वो भारत लौटकर आंध्र यूनिवर्सिटी में कुलपति बने। 1936 में वो ऑक्सफोर्ड पढ़ाने लौट गए। बात वर्ष 1926 की है। स्वामी विवेकानंद के अमेरिका और यूरोप दौरे को 33 साल हो चुके थे। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में इंटरनेशनल कांग्रेस ऑफ फिलोसफी का आयोजन था। डॉ. राधाकृष्णन ने इसमें भाग लिया। डॉ. राधाकृष्णन ने पश्चिम को उनकी भाषा में भारतीय दर्शन समझाना शुरू किया। पश्चिम के कई दर्शनशास्त्री इस बात से हैरान थे कि भारत का कोई दार्शनिक पश्चिम के दर्शन पर इतनी अच्छी पकड़ रखता है। वो ब्रिटिश एकेडमी में चुने जाने वाले पहले भारतीय फेलो बने और 1948 में यूनेस्को के चेयरमैन भी बने। डॉ. राधाकृष्णन भारतीय संविधान सभा में भी चुने गए। लेकिन उसी समय रूस के मोर्चे पर भारत को एक ऐसे विद्धान की जरूरत थी, जो दोनों देशों के रिश्ते और प्रगाढ़ कर सके। इसलिए 1949 में उन्हें सोवियत यूनियन में भारत का राजनयिक बनाकर भेजा गया। 1952 में डॉ. राधाकृष्णन को भारत का पहला उपराष्ट्रपति बनाया गया। 1962 में डॉ. राजेंद्र प्रसाद के बाद वे भारत के दूसरे राष्ट्रपति बने।
राष्ट्रपति बनने के बाद डॉ. राधाकृष्णन ने स्वैच्छिक आधार पर वेतन से कटौती कराई थी। उन्होंने घोषणा की कि सप्ताह में दो दिन कोई भी व्यक्ति उनसे बिना पूर्व अनुमति के मिल सकता है। डॉ. राधाकृष्णन ने अपने जीवन के 40 वर्ष एक शिक्षक के रूप में व्यतीत किए। शिक्षक जगत के साथ समाज में उनके योगदान को देखते हुए उन्हें ऑर्डर ऑफ मेरिट, नाइट बैचलर, टेम्प्लटन पुरस्कार से नवाजा गया। अंग्रेज सरकार ने उन्हें नाइटहुड की उपाधि भी दी थी। उन्हें भारत रत्न से भी नवाजा गया।